
वो पहली चिठ्ठी जो मेरी माँ ने अब भी संजो के रखे हैं
बाकायदा अपनी सन्दूक के उस वाले कोने में जहाँ वो अपने क़ीमती गहने छुपा के रखा करती थी
जितना प्यार और तवज्जो उस चिठ्ठी को देती है
शायद औऱ किसी को नही ,पर हां मुझे !!
मैंने चिठ्ठी तो कभी भी पढ़ी नहीं ,पर हां मैंने उस चिठ्ठी के अहसास को माँ की आंखों में ज़रूर पढ़ा है
वो कई पन्नों में थी पर माँ कभी भी मुझे उसके पास नही आने देती थी ,मुझे याद है मेरा बचपन जब मैं लुका छिपी का खेल खेला करता था
माँ को बिन बात धकेला करता था ,
उनकी चूडियों का मेला करता था ,जहां मैं ही बेचने वाला खरीदने वाला औऱ मैं ही फोड़ने वाला भी बन जाया करता था ,पर हां डांट तो मिलती थी पर प्यार बेहिसाब !!!!
दूसरी तरफ़ पिता जी फ़ौजी, मूछो के सौकीन
बातें सीधी मग़र काफ़ी तर्क भरी भी रहती थी उनकी आशिक़ी सिर्फ माँ से ही संभाली जाती थी बाकी घर सबकों एक जैसी नीम के तरह लगती थी जिसके फ़ायदे तो है मगर कड़वी काफ़ी होती है
"दर्द का हिसाब भी वो रखा करते थे
दवा भी साथ वो रखा करते थे
बाजुओं को बंदूकों के हवाले रखते हुए
मेरी निंदो के लिए वो हाथ भी रखा करते थे"
मेरे खुशनसीब होने का दौर मैं उन्हीं चिट्ठीयों को
मानता हूं
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