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आँख उठा कर झुका लेती हो,
ये आदत लेगी किसी दिन जान मेरी
ज़रा तो भरम रखो आशिक़ का,
कुछ तो बात मानो जान मेरी।
तरसती तड़पती निगाहों का हलकान मिटे,
दीद को कब से हैं आंखें परेशान मेरी।
कुरेदते हो ज़ख्म क्यों जब दवा नहीं करनी,
ज़िन्दगी है और दो-चार दिन की मेहमान मेरी।
~हिलाल हथ'रवी
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