धरा बड़ी ही प्यारी थी
प्यारी थी, इसकी हर माया ।।
लेकिन हम इंसानों ने है
इसको कलुषित कर डाला ।।
जगत नियंता परम पिता ने
सबको ऐसा भेजा था ।।
जितने लंबे पाँव थे जिसके
चादर उतनी देता था ।।
लेकिन हम इंसानो ने
कुछ अलग ठान ही रखी है ।।
एक दूजे को मार रहे
हुई जान बड़ी अब सस्ती है ।।
किसका पाएं, किसका लेंगे
प्रति-पल साजिश करते हैं ।।
जिस थाली में खाते अक्सर
छेद उसी में करते हैं ।।
नैतिकता का पतन हुआ
भाई बहना को लूट रहा ।।
अदला-बदली कर बहनों की
दोस्त, दोस्त से लिपट रहा ।।
फुर्र हुआ निःस्वार्थ भाव अब
लाभ-हानि का लेखा है ।।
घूम रहे सब ‘चिकने घड़े’ बन
लाज न आते देखा है ।।
इसी गिरी मानसिकता का अब
दुनिया फल है, झेल रही ।।
खुद को श्रेष्ठ दिखाने की
नीयत का फल है भोग रही ।।
क्या सूझी थी मानव को
ऐसा प्रयोग जो कर डाला ।।
क्षीर पी रहे इंसानों को
विष का प्याला, है दे डाला ।।
सुनी कहावत बचपन में थी
‘जो बोओगे, काटोगे’ ।।
जितना, जैसे कर्म करोगे
भोग भी वैसे पाओगे ।।
बात समझ में अब आयी
जब विकट आपदा आयी है ।।
पूरी दुनिया त्रस्त हुई पर
मिलती नहीं दवाई है ।।
दौड़ रहा दिन-रात मगर अब
चैन नहीं, इन्सां को है ।।
अगले पल, शायद मर जाये ?
अब इस डर से काँपत है ।।
भूखे, बिलख रहे हैं देखो
अन्न भरा भंडारों में ।।
नंगे पाँव चल रही बस्ती
सजे सूज गोदामों में ।।
पैदल, मीलों भटक रहा
पाषाण काल सा आया है ।।
फिर भी देखो, दंभ मनुज का
जरा सा न पछतावा है ।।
संसाधन सब बंद हुए
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments