
Share0 Bookmarks 5894 Reads1 Likes
ख़्वाहिश रह गईं मेरी अधूरी,
मैं ज़िंदगी का ग़ुलाम बन गया,
पढ़ली मैंने चंद क़िताबे और मैं आम बन गया,
शोक तो पालें थे आवारगी कें, डाकू-ए हिंद कहलाएँगे,
लूट लेंगे समाज से उसकी कुरीतियाँ,
लाला से उसकी बेड़िया छुड़वायेंगे,
वो सूद जो उसने चढ़ाया था सालों-साल, इस बार उसे चुकाना था,
वो चोर मैं छुपाए बैठा हूँ अंदर, जिसे हर गले से चुराना वो हार था,
वो चमचमाता चमकीला आभूषण, जिसें पहनने को मैं भी आज तैयार था,
भीख़ में दी जाती हैं हमे आज़ादी, विचारों की नीलामीं होतीं भरें बाज़ार हैं,
बन कर नौकर हों जाते है हम ख़ुश, यहीं तों चमचमाता वो हार हैं,
कुछ ख़ून भी मेरे हिस्से थे, कुछ लाशे मुझें बिछानीं थीं,
चंद दलाल थे धर्म के, कुछ की बातें बड़ी शयानी थी,
वो झपटमार वो आवारा बन, उन भिड़ो के अंदर घुसना था,
किसी चौराहे से भीड़ भरे मन मे, विचारों का बम बन फटना था,
पर ख़्वाहिश रह गईं मेरी अधूरी,
मैं ज़िंदगी का ग़ुलाम बन गया,
पढ़ ली मैंने चंद क़िताबे और मैं आम बन गया।
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments