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सजा लूँगा सितारें कुछ नए,
इस अधीर अम्बर पर।
ढूंढ लाऊँगा खुद को फिर,
अपने उस खोए मंजर पर।
मुसाफिर मैं मुन्तजिर नहीं,
आसमां ना बना सकूं अपना
इस जहां पर, तो क्या
लिख जाऊँगा ग़ज़ल मैं,
इस भींगे ज़मीं को कागज बना कर॥
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