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ज़िन्दगी ग़म को थका क्यों नहीं देती

तेरी याद भला मुझे दग़ा क्यों नहीं देती



दिए की रोशनी में हया चुभती है ग़र तुम्हें

इस बदन के वास्ते दिए बुझा क्यों नहीं देती


उभर आती है माथे पर शिक़न हालत की 

दूर जा रही हो मुझे बता क्यों

नहीं देती



गर्द-ए-ख़ुशबू ने की है जाँ तलब

मुझे मर जाने की दुआ क्यों नहीं देती


मुहब्बत के सारे क़ायदे तुमने ही सिखाए थे

गले के सारे निशाँ छिपा क्यों नहीं लेती



सुना है कोई और

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