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शब्दों के मेलें लगते हैं यहाँ पर,
आया परिन्दा कहिं से एक भुला भाला।
सराय हि सहि मानलु कुछ पल कि,
राहत तो मिलि हमें ओं मेरे कृपाला॥१॥
बोरियत ना रहिं अब तो सिने में,
कुछ न कुछ कर हिं तो लेगें रंगत में।
बहती रहती हैं तरङ्गे हावाओं किं,
रङ्ग भर जाए कभि ऊफाने संगत में॥२॥
खाली था समय क्यों कि बेकारी है,
अब कुछ क्षण बित हि जाएगें बुन्ने में।
रस आए या ना आए पारखी स्वाद को,
हम बहरें को का मजो सात सुर सुन्ने में॥३॥
हाथी मस्त मस्ताना को टोको को रोको,
फुर्सद कहाँ किसे, फसें सब हैं अफसाने में।
हम को भि मौका अब मिल हि गया,
हमारें फाजिल वक्त को यहाँ दफनाने में॥४॥
फिक्र ना करियों ए मेरे फाजिल-ऐ-वक्त,
कब्र हैं यहाँ गुजर ना हि है हप्ते दो हप्तें में।
कभि कभि हम ला भि दिया करेगें तेरे लिए,
राह से दो फूल सुफियाने से सस्ते सस्ते में॥५॥
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