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शीत झड़ रही
ओस जम रही
रजाई कंप रही
सेठ सो रहे
बंद दर में।
अभागा किसान
सेठ के खेत का
पशु भोग लगा सकते
इस भय से।
कड़कड़ाती सर्दी में रात भर;
तन पर एक झगोला पहने,
कहने भर का।
घर से पृथक
साहिब के खेत पर,
तारे गिन काटता रात
'बड़भागी' कृषक!
पैर शून्य हैं
हाथ जम चुके
हथेली मुरझा गईं
पर भय नहीं
भ्रम सक्रिय है
खेत पशु तो नहीं चर रहे!
खेत के दीदार में एकटक,
कट गई निशीथ,
एक दो झपकी की सोची-
खेत खड़खड़ाए, आंख खुल गई।
अगर खा गये खेत तब क्या होगा
कल चूल्हे पर केवल तवा तपेगा
रोटी नहीं।
वह किसान जो
फूटी कौड़ी खाता है
दो कौड़ी रखता है
कुछ बचे अगर
तो ओढेगा।
हवा का हांफना,
गीदडों के भय भरे स्वर,
झींगुरों की सनसनाहट,
सर्प-गिरगिटों की सरसराहट;
आत्मा कांपती है
धिक्कारती भी है-
मनुज होने पर;
लेकिन सब भांप रहा आदमी
पेट के लिए।
पेट और सेठ में इतना बड़ा संघर्ष!
पर न खबरों में, न अखबारों में
न छापा जा रहा चलतीं किताबों में।
- ✍️ सत्यव्रत रजक
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