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राह के राही
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क्या कपन क्या कलेश रे,
हो भय नहीं लव लेश रे;
क्या देखना रोये हुए कुहरे,
क्या देखना छिपते हुए चहरे।
किंचित नही अपनत्व हो,
चाह यह नही अमृत्व हो।।
सोच न यह पंथ कैसा,
बढ़ चलो हो भी जैसा;
कई मिलेंगे शूल काटी,
कई मिलेंगे फूल माटी।
कई निर्झर अंगार होगे,
रोडे़ कई हजार होंगे।।
अरे तू तो है रे 'आदमी',
राह शुष्क हो या नमीं;
क्या फर्क है तुम्हें इससे,
भय उगे आखिर किससे।
है विसमता से तू अधिक,
बिन मुड़े बढा चल पथिक।।
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14/08/2021
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