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दो दिवस भले ही पाला हो,
जीवनभर या तो टाला हो;
केवल रही हो वह प्रसवनी,
केवल रही हो शिशु जननी;
बाल रुत दिया हो कितना भी दण्ड,
सुत कहें उसे कितना भी पाखण्ड;
चाहे सुत हित से सहमत न हो,
नाही सुत हित सुख, आशा, अभिलाषा से;
जननी कितनी भी हो निर्दय-कठोर,
पृथक नहीं कर सकते मां की परिभाषा से।
- सत्यव्रत रजक
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