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हाँ हम ही लड़के हैं,
वही जिनके पैदा होने पर तो मिठाईयाँ बाँटी जाती है,
मगर ज़िंदगी का बीज नीम के रस में रोप दिया जाता है,
हमारी इच्छा, चाहत, रुझान कुछ भी हो,
पराई उम्मीदों को हमपर थोप दिया जाता है,
किसी महान पुरुष ने कह दिया था...
की 'मर्द को कभी दर्द नहीं होता',
मगर हम कहते हैं,
जिसे 'दर्द नहीं होता वो मर्द नहीं होता'
कैसे!?
बेटा घर से बहुत दूर हो, तो बाप को दर्द होता है,
बेटी विदा हो, तो बाप को दर्द होता है,
भाई गलत रास्ते पर हो, तो भाई को दर्द होता है,
कमाने वाला एक हो और बहन अविवाहित हो, तो भईया को दर्द होता है,
बाप कर्ज़ में और बेटा बेरोज़गार हो, तो बेटे को दर्द होता है,
माँ को गहरा मर्ज़ हो और बेटा असहाय हो, तो बेटे को दर्द होता है,
ये सब सहते हुए आत्मा भीग जाती है पर आँखों में पानी का एक कतरा न होता है,
क्योंकि सबने इनको ये कहकर बंदिश में रखा हुआ है कि "लड़का थोड़ी न रोता है"।
हम बाहर घूमें तो आवारे हैं,
घर पर रहें तो चूहे हैं,
लड़कियों से बातें करें तो लड़का हाथ से निकला जाता है,
न करें तो लुगाईयों सा शर्माता है,
किसी और के कहने पर चलें तो फिसद्दी हैं,
खुद के मन की करें तो ज़िद्दी है,
शादी के बाद माँ की सुनें तो 'माँ के पल्लू से बंधा हुआ है',
बीवी की सुने तो 'जोरू का गुलाम बना हुआ है',
अरे हमें तो रिश्ते बचाने के लिए रिश्ता तोड़ना पड़ता है,
हमारा घर संवर जाए इस खातिर घर छोड़ना पड़ता है,
हर बार...
ये ज़माना ज़हरीली छन्नी से एक ही सवाल छान कर लाता है,
बाकी सब ठीक है "लड़का कितना कमाता है?"
हम कुछ करे अथवा न करें पर ज़माना कुछ न कुछ कहेगा,
हमें नाशाद कर-कर के ही ये खुश रहेगा,
फिर भी जिम्मेदारियों का ज़िम्मा हम कंधे पर उठाए रहते हैं,
पीठ पीछे काँटे हमें भेदते हैं पर होंठों पर हम गुलाब खिलाए रहते हैं।
हाँ हम ही लड़के हैं!
वही जिनके पैदा होने पर तो मिठाईयाँ बाँटी जाती है,
मगर ज़िंदगी का बीज नीम के रस में रोप दिया जाता है,
हमारी इच्छा, चाहत, रुझान कुछ भी हो,
पराई उम्मीदों को हमपर थोप दिया जाता है,
किसी महान पुरुष ने कह दिया था...
की 'मर्द को कभी दर्द नहीं होता',
मगर हम कहते हैं,
जिसे 'दर्द नहीं होता वो मर्द नहीं होता'
कैसे!?
बेटा घर से बहुत दूर हो, तो बाप को दर्द होता है,
बेटी विदा हो, तो बाप को दर्द होता है,
भाई गलत रास्ते पर हो, तो भाई को दर्द होता है,
कमाने वाला एक हो और बहन अविवाहित हो, तो भईया को दर्द होता है,
बाप कर्ज़ में और बेटा बेरोज़गार हो, तो बेटे को दर्द होता है,
माँ को गहरा मर्ज़ हो और बेटा असहाय हो, तो बेटे को दर्द होता है,
ये सब सहते हुए आत्मा भीग जाती है पर आँखों में पानी का एक कतरा न होता है,
क्योंकि सबने इनको ये कहकर बंदिश में रखा हुआ है कि "लड़का थोड़ी न रोता है"।
हम बाहर घूमें तो आवारे हैं,
घर पर रहें तो चूहे हैं,
लड़कियों से बातें करें तो लड़का हाथ से निकला जाता है,
न करें तो लुगाईयों सा शर्माता है,
किसी और के कहने पर चलें तो फिसद्दी हैं,
खुद के मन की करें तो ज़िद्दी है,
शादी के बाद माँ की सुनें तो 'माँ के पल्लू से बंधा हुआ है',
बीवी की सुने तो 'जोरू का गुलाम बना हुआ है',
अरे हमें तो रिश्ते बचाने के लिए रिश्ता तोड़ना पड़ता है,
हमारा घर संवर जाए इस खातिर घर छोड़ना पड़ता है,
हर बार...
ये ज़माना ज़हरीली छन्नी से एक ही सवाल छान कर लाता है,
बाकी सब ठीक है "लड़का कितना कमाता है?"
हम कुछ करे अथवा न करें पर ज़माना कुछ न कुछ कहेगा,
हमें नाशाद कर-कर के ही ये खुश रहेगा,
फिर भी जिम्मेदारियों का ज़िम्मा हम कंधे पर उठाए रहते हैं,
पीठ पीछे काँटे हमें भेदते हैं पर होंठों पर हम गुलाब खिलाए रहते हैं।
हाँ हम ही लड़के हैं!
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