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अपने अकेलेपन का तमाशा अजीब कर रहा हूँ मैं,
सौ कुर्सियों मे सौ शीशे रख दिए हैं,
बस उन्हीं से बातचीत कर रहा हूँ मैं।
समझ आ गया हैं मुझे
खुशियाँ मुफ्त का नहीं उधार का सामान हैं,
क्योंकि उसे देने वाले अब उनका हर रोज़ तक़ाज़ा करते हैं,
बसंत जैसे ही कदम रखने की कोशिश करती है,
सारे मिलकर पतझड़ को ताज़ा करते हैं।
मुझे अब विश्वासघात पे पूरा विश्वास है,
क्यों?
अरे! मेरा कत्ल हो रहा है मेरी आँखों के सामने,
और खंजर मेरे दोस्तों के पास है।
सौ कुर्सियों मे सौ शीशे रख दिए हैं,
बस उन्हीं से बातचीत कर रहा हूँ मैं।
समझ आ गया हैं मुझे
खुशियाँ मुफ्त का नहीं उधार का सामान हैं,
क्योंकि उसे देने वाले अब उनका हर रोज़ तक़ाज़ा करते हैं,
बसंत जैसे ही कदम रखने की कोशिश करती है,
सारे मिलकर पतझड़ को ताज़ा करते हैं।
मुझे अब विश्वासघात पे पूरा विश्वास है,
क्यों?
अरे! मेरा कत्ल हो रहा है मेरी आँखों के सामने,
और खंजर मेरे दोस्तों के पास है।
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