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धरती का सीना चीर,
खुदाई करते यंत्र।
गड्ढा करते बहुत गहराई तक।
जितना गहरा गड्ढा,
उतनी गहरी नीव।
जितनी मज़बूत नीव,
उतनी ऊँची इमारत।
धड धड धड शोर मचाते यंत्र।
धूल-मिट्टी के बादल उडाते यंत्र।
उस शोर में, उस धूल-मिट्टी में सने मज़दूर।
फावड़ा, कुदाल लिए,
सिर पर तसले में,
पत्थर-मिट्टी का बोझ ढ़ोते मज़दूर।
कभी कड़ी धूप की भट्टी में तप कर।
कभी तेज़ बारिश की चपेटों को झेल कर,
दिन-रात खड़े।
बदलती ऋतुओं में,
नीव मज़बूत करते मज़दूर।
लोहे की सरिया के सहारे,
मिट्टी-सीमेंट से बंध कर,
एक पे एक जड़ती ईंटें।
जड़ती ईंटों के संग चढ़ती मंज़िलें।
बहुत ही लगन से,
अथक परिश्रम करते मज़दूर।
कभी जाली में झलाई करते।
कहीं चमचमाते शीशे लगाते।
खुद टूटे-फूटे घरों में रहते,
पर ऊँची-चौड़ी इमारत बनाते।
पेट कमर में लगे मज़दूर।
जब बन जाती है इमारत,
साफ-सुथरे होकर निकल पड़ते हैं।
फ़िर धूलिमय होने,
ईंट-पत्थरों का बोझ ढोने।
बनाने करोड़ों की नयी इमारत।
चंद रुपयों के मज़दूर।
सम्रिता®
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