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रोज़ सुबह बुनता हूं रोज शाम उधड़ रहा हूं मैं ,
जिंदगी की उलझनों में दिन-ब-दिन उलझ रहा हूं मैं
बुझाने गले की प्यास अपने ही आंसू गटक रहा हूं मैं ,
खोया मुसाफ़िर हूं सूरज के उजालों में भी भटक रहा हूं मैं
पहले पहल तो गैरो के दिए सितम सह रहा था मैं ,
आजकल अपनों के दिए हर ज़ख्म भर रहा हूं मैं
छोड़ो! किसको क्या बताऊं की कैसे जी रहा हूं मैं,
जीने की चाहत में रोज शाम कतरा कतरा मर रहा हूं मैं
Samkit Jain "सारिकेय"
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