हे नियति ! हेे मेरे भाग्यविधाता !
होना हो जितना, उतना निष्ठुर और हो जा
अपितु बात इक मेरी भी सुन ले
है एक प्रतिज्ञा , प्रतिज्ञा वह भी सुन ले
तेरे दिए घाव पर मैं हार कभी न मानूँगा
छोड़े सांस साथ मगर मैं मरहम कभी न बाँधूँगातेरे मेरे इस द्वंद में
शंखनाद एक मैं भी बजाता हूँ
बनाकर गगन और धरती को साक्षी
मैं तुझे आज फिर चेताता हूँ,
ख़त्म सब द्वंदों को करने वालाजय का ऐसा वार होगा
तेरे लाख वारों के बीच
मेरा आख़िरी प्रहार होगा ।
मैं सूर्यवंशी रघुनाथ नहीं वह
जो निर्दयता तेरी सह जाऊँगा
मैं कुंतीपुत्र धर्मराज नहीं वह
जो छलावे में तेरे आ जाऊँगा
मैं नहीं वह बलशाली सुग्रीव
जो पर्वतों पर जा छुप जाऊंगा
न ही मैं वह कर्ण महावीर
जो सब कुछ न्यौछावर कर जाऊंगा
तेरे मेरे इस द्वंद में
एक बिगुल आज मैं बजाता हूँ,
बनाकर जल व अनल को साक्षी
मैं तुझे आज फिर चेताता हूं
अड़चन रूपी तेरे नागों पर तोएक नागयज्ञ सा विधान होगा
तेरे लाख वारों के बीच
मेरा आख़िरी प्रहार होगा ||
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