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पथिक नहीं, युग-पथिक हूँ मैं
जो आता तुझे निहारने
बनकर उल्का कभी, या धूमकेतु
अशनि कभी, या चाँदनी |
मेरे स्व!
छोड़ रखा हूँ खेल मेंनिहारने हँसी लबों की
और कभी आँसू बेबस तेरे |
मुझे भी कर याद कभी
सज-संवर निर्मल, निश्छल
मेरे अपनेपन की छाँव में
आह, लेकर मुस्कान ही सही |
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