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कर लंघन कुंठा, विस्तार

चल शोक, हर्ष के शिखर पार

पथ यही, दिशा, पाथेय तुम्हरा

मंजिल यही, यह गेह तुम्हारा।

 

पथ मध्य पड़े पग तले सुमन

बहे रक्त थे मृदुल अंग,

कहाँ चमन में रहे रंग

कुंद मात्र रह गये कंट।

 

हुए पार जब गम गिरान

खिंचे कदम जब आस चढ़ान

किस व्यक्ति, वस्तु में दम

तुझे चढ़ाये भाव खम्भ? 

कर भ्रू दमन, धर हास रुदन

शब्दहीन अब कर वर्षण

कृपणहीन, निश्छल आनन्द।

 

पथ यही, दिशा, पाथेय तुम्हरा

मंजिल यही, यह गेह तुम्हारा।

 





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