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कारीगर और लोहा

samarpan.swamisamarpan.swami February 27, 2023
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एक अकेला, धीर, कुशल

था बस्ती का कारीगर

हाथों पड़ते जिसके ही

शीशा, लोहा या सोना

जाते सबके रूप बदल।

कारीगर वह धीर कुशल।

 

लौह पिण्ड को देने रूप

देता चोट हथौड़े की;खिल चिनगारी,

गूँज छिटकती

फिर लोहे को तपा-तपा

देता घना घन प्रहार।

 

लौह कराहा एक बार:

मालिक मेरे,

हाथों तेरे हूँ लाचार।

बोलो पर, क्यों, मुझ पर ही

होता ऐसा अत्याचार?

शीशे को तुम देते फूँ

सोने को सहलाते हो

पर जला मुझे,फिर पीट पीट,

क्यों ऐसे तड़पाते हो?

मालिक मेरे वाह, वाह!

करते क्यों हो पक्षपात।

लौह लौह की टक्कर में,

अंगार खिलेंगे कदम-कदम

धनुष राम का टंकारेगा।

बोलो कैसा कसूर मेरा

लंघन किया नहीं मैंने जब

लौह-धर्म की लक्ष्मण रेखा?

क्या मैं कोई अति दुष्ट,

जिस कारण हो मुझसे रुष्ट

मुझे पीटते जला-जला?

 

सारी बस्ती का कारीगर

बोला लोहे से हँसकर:

तुमसे पहले कितनों ने ही

प्रश्न पुराना यह पूछा।

इसमें तेरा ना कोई दोष,

ना तुझ पर है मेरा रोष।

बुद्धू मेरे, भोले, प्यारे!

लोहे से फौलाद बनाने

दर्द तुझे मैं देता हूँ।

पर, तुझसा ना कोई प्यारा,

सुन्दर शीशा, सोना न्यारा।

 

कारण भी सुन।

वीर्यहीन यह दुर्बल शीशा,

बस ऐंठन ही ऐंठन है ।

शोभा-सज्जा घर की बन यह

जगमग करता इठलाता है,

ठोकर हल्की लगते ही पर

हो जाता है चूर चूर।

टुकड़े इसके नहीं काम के

पर, चुभ पैरों में सबके

यूँ ही रक्त बहाते हैं |

 

रक्तपिपासु, दंभी सोना

अहं, स्वार्थ की मूरत है

अपने कारण लोगों को जो

लूटता, लुटवाता है।

बंद तिजोरी में यह सोता

या तन पर है बैठा रहता,

कारण इसके बार-बार

धरती हरित हुई है लाल।

 

देखो निज को।

तुम बनते हो हल, कुदाल,

पहिया बनते, खंभ, ढाल,

बनते तोप, तीर, तलवार।

तुम से माटी ऊर्वर बनती

अचल सचल बनाते हो,

करते रक्षा शीत, ताप से

दुर्वल सबल बनाते हो।

कितनी बात कहूँ, इतने में

गाथा तेरी पूरी है,

बिन तेरे यह धरती सारी

आधी और अधूरी है।

 

कहते हैं तबसे लौह-हृदय

शोर मचाता हँस-हँसकर

परहित अपना जीवन देता

ताप-चोट की पीड़ा सहकर। 

*****

 

 

 

 

 

 

 






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