एक अकेला, धीर, कुशल
था बस्ती का कारीगर
हाथों पड़ते जिसके ही
शीशा, लोहा या सोना
जाते सबके रूप बदल।
कारीगर वह धीर कुशल।
लौह पिण्ड को देने रूप
देता चोट हथौड़े की;खिल चिनगारी,
गूँज छिटकती
फिर लोहे को तपा-तपा
देता घना घन प्रहार।
लौह कराहा एक बार:
मालिक मेरे,
हाथों तेरे हूँ लाचार।
बोलो पर, क्यों, मुझ पर ही
होता ऐसा अत्याचार?
शीशे को तुम देते फूँ
सोने को सहलाते हो
पर जला मुझे,फिर पीट पीट,
क्यों ऐसे तड़पाते हो?
मालिक मेरे वाह, वाह!
करते क्यों हो पक्षपात।
लौह लौह की टक्कर में,
अंगार खिलेंगे कदम-कदम
धनुष राम का टंकारेगा।
बोलो कैसा कसूर मेरा
लंघन किया नहीं मैंने जब
लौह-धर्म की लक्ष्मण रेखा?
क्या मैं कोई अति दुष्ट,
जिस कारण हो मुझसे रुष्ट
मुझे पीटते जला-जला?
सारी बस्ती का कारीगर
बोला लोहे से हँसकर:
तुमसे पहले कितनों ने ही
प्रश्न पुराना यह पूछा।
इसमें तेरा ना कोई दोष,
ना तुझ पर है मेरा रोष।
बुद्धू मेरे, भोले, प्यारे!
लोहे से फौलाद बनाने
दर्द तुझे मैं देता हूँ।
पर, तुझसा ना कोई प्यारा,
सुन्दर शीशा, सोना न्यारा।
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