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१.

 

बालक

धूल कहाँ से इतनी उड़ती

राख हवा में उड़ती क्यों?

कहो कहानी इसकी क्या माँ

वायु इतनी दूषित क्यों?

 

माँ

सुनो कहानी उन जीवन की

जिस कारण से वायु दूषित

कारण जिनके खुशियाँ कलुषित ।

खातिर औरों के जीकर ही

मानव बनता मानव श्रेष्ठ

वर्ना बनता दानव एक ।

दुख, दैन्य, विपत्ति इनसे ही

महासमर, आतंक इन्हीं से

पीड़ा, आँसू भेंट इन्हीं की ।

धीरज धरकर सुनो कहानी

कैसे मानव बनता दानव

और वहाँ से भस्मासुर ।


माता

अंग लपेटे हरित वसन

बूटे झिलमिल रंग-रंग

नील वर्ण तन ओढ़े चुनरी

औंधी लेटी औंघाई

जड़-जंगम की जननी । 


सुन कोलाहल धमा-धमा-धम

धावित पग की धम-धम-धम-धम

बिखरे लय की डम-डम-डम-डम

उठ बैठी वह अकुलाई

जड़-जंगम की जननी । 

प्राण बचा शिव भाग रहे

दम रोके प्राणी काँप रहे

आतंक भरा नभ डोल रहा

देख दृश्य यह भरमाई

जड़-जंगम की जननी। 

लोकपति का कैसा हाल

वसन बिखरते, बिखरे बाल

ताल-सृजक ही यूँ बेताल!

पीड़ित हो वह कुम्हलाई

जड़-जंगम की जननी।

 

कंपित काया, वाणी, मन से

पूछा उसने वृद्ध वृक्ष से

‘कैसा यह उत्पात नया?

भोले शिव क्यों भाग रहे,

अचल-सचल में क्यों यह त्रास?’

 

वृक्ष

करुण कथा क्या बोलूँ माते

एक तरुण के जीवन की

होने वाला जिसका नाश ।

युग-युग से हैं देख रहे

हम एक कहानी मानव की

झटक-झटक कर चढ़ता चोटी

और फिसल कर गिरता फिर ।

अंध-दृष्टि से मारा फिरता

धरने कर में अंध निशा

प्यास बुझाने कंठ देश की

पीता गट-गट जल खारा ।

 

पृथ्वी

दर्द यही ले दिल में बैठी

किसे कहूँ मैं, कौन सुनेगा?

अबकी आँधी कौन चली, पर,

किस चोटी से कौन गिरेगा?

 

वृक्ष

बरसों से मैं देख रहा था

निशा उदय से निशा उदय तक

नदी किनारे खुद में खोए

युवा एक जो चाहत-मूरत ।

मूक सही, पर मूर्ख नहीं

स्थविर हूँ, मैं ठूँठ नहीं

गतिहीन, हाँ क्रियाहीन

नहीं कदापि वेदनहीन ।

टहनी, पत्ते गिरा-गिरा नित

मूर्ख तरुण को किया इशारा

‘थम जा मूरख, थम जा रे

धर लगाम चाहत अश्वों का।’

पर सुननेवाला कौन यहाँ था!

सुनो कथा उस मूरख मन की ।


तरुण

घायल मन से रिसती पीड़ा

निर्बलता की, निर्भरता की

कोटि-कोटि तन-लोम कूप में

आग धधकती वंध्यापन की ।

वध्य पशु सा मरते जीते

रगड़-रगड़ सर माटी में

सुख-चैन भला क्या पाते सब

तिल-तिल मर यूँ जीवन में?

बल धन का हो या भुज का हो--

मानव इससे मानव बनता

निर्बल, दुर्बल और अकिंचन

ये तो हैं बस कीट-फतिंगा ।

पग तल जिसके धरती डगमग

रक्त-नयन में अग्निवाण

सम्मुख जिसके हर मानव नत

जग बस माने उसे महान ।

शक्ति, शक्ति, हाँ शक्ति अतुल

चाहत मेरी शक्ति अतुल,

शौर्य, वीर्य औ’ बल-विक्रम

वैभव, संपद मिले विपुल ।

कहती थी माता, ‘मत जा बेटा ।

मृग-मरीचिका बल की इच्छा

अंध-काम का कर दे त्याग

तोष-धर्म ही जग में अच्छा ।’

‘बाहुबली ही जल जाता है’

कहती थी वह बार-बार

रोज-रोज पर वीर्यविहीन

मरता ना क्या सौ-सौ बार?

कहती थी अज्ञान-धर्म से

बल-वैभव की होती चाहत,

कौन काम का जीवन वह

पिस जाता जो पग-पग पर?

नहीं चाहता ऐसा जीवन

नहीं चाहता रीता ज्ञान

भय से मेरे भू-नभ काँपे

बरसे भ्रू से अग्निवाण ।

खुशी करुँगा भोले शिव को

तपा-तपा कर निज तन, मन

हुआ मंत्र यह आज हमारा

अतुलित बल या देह पतन ।      

 ३.

बालक

मूक बनी माँ क्यों तू बैठी

कहती क्यों ना आगे की?

 

माँ

व्यथा भरी गाथा आगे की

वाणी थम-थम जाती मेरी

फिसल पड़ें ना आँसू तेरे

नयन-नीड़ से अनजाने ही ।

जप-तप-श्रम कर ऋषि, मुनि

करते पावन निज तन-मन

कामी लोभी और घमंडी

लाते निज पर विपद गहन ।

कर तप पाया उसने वर

रखे हाथ वह जिसके सर

बन भस्म गिरे, वह चूर-चूर

कहलाया वह भस्मासुर ।

धरना चाहा शप्त हस्त अब

भरे दर्प, वह हित-साधक सर

प्राण बचाकर भागे भोले

पुण्य असुर के हुए दग्ध अब ।

मोह कहो, या कह लो माया

हाल बने कुछ अजब-गजब --

रखा हाथ वह खुद के सर!

धधकी काया, केश, अंग

चीख उठा अब भर आतंक

भस्मित होता भस्मासुर ।

 

भस्मासुर

यह क्या हो रहा भगवान!

नाश, नाश, यह महानाश ।

नहीं त्रास बस मृत्यु का

घोर ताप इस ज्वाला की

तिल-तिल जलने की पीड़ा

कण-कण तन-मन फटने का ।

लोम तनिक सा जलते ही

प्राणी उठता चीख चीख

जलता मेरा तन मन सारा

माँगू किससे त्राण-भीख?

क्यों मूक, बधिर बना संसार

सुनता ना क्यों आर्त्तनाद?

पीड़ा अकुलित अंग-अंग

दे त्राण मुझे हे प्राणनाथ!

कैलाशपति, कैलाशपति!

जगतपति का देकर वर

क्यों बना रहे अब राखपति?

 

माता

देख अवस्था भस्मासुर की

प्रकट हुए कैलाशपति

देख इष्ट को चीखा क्रोधित

भस्मित होता भस्मासुर ।

  

भस्मासुर

बोल स्वयंभू! क्यों वर तेरा

मुझपर यह अभिशाप बना

सात सुरों के सरगम बदले

ध्वंसनाद क्यों ध्वनित किया?

ना देना था ना देते, क्यों

हाथों तेरे ठगा गया?

नगर दिखा आशा-दर्पण में

प्रतिभासित को सत्य कहा?

तद्गत तुझमें तन, मन पर क्यों

तांडव तेरा नाच हुआ?

खुद मेरे हाथों क्यों मेरा

प्रलय प्रखर प्रक्षिप्त हुआ?

 

शिव

सुन रे अधम, असुर भस्मासुर:

वर, मूर्ख! हमारा वर ही रहता

पर कारण तेरे ही तुझपर

वर मेरा अभिशाप बना ।

रोनेवाला जग में तुझसा

दोष ढूँढ़ता औरों में

गले लगा आपद-संपद को

आस खोजता आँसू में ।

तेरे ही पाषाण हृदय ने

तेरे मन का नाश किया

नहीं और के कारण पर तू

खुद ही भस्मीभूत हुआ ।

 

भस्मासुर

करी साधना अरसों-बरसों

सही पिपासा तन-मन की

उष्मा सहकर ऊर्मित उर की

पल-पल तेरी पूजा की ।

कब खिली ऋतु, कब बादल रोया

सोया सूरज, निशा बुझी

कब माह गया, कब बरस गया

ओले आये, आँधी आई

अनजाने इन आवगमन के

पल-पल तेरी पूजा की ।

जग के स्वप्निल तज सुख सारे

किया ध्वनित मैं ‘तुम्हीं, तुम्हीं’

तोड़े नाते, छोड़े रिश्ते

आगा-पाछा ना सोचे ही

बस तुझसे वर पाने ईप्सित

पल-पल तेरी पूजा की ।

क्या हाल बनाया शरणागत का!

 

शिव

अरे अधम, दानव, भस्मासुर

कर बंद तुम्हारा यह प्रलाप ।

था इष्ट नही मैं कभी तुम्हारा

पूजन की ना तूने मेरी,

स्वार्थसिद्धि था इष्ट तुम्हारा

दर्प, अहं ही पूजा तेरी ।

सोपान बनाया तूने मुझको

स्वार्थसिद्धि की मंजिल का

पग पहुँचे मंजिल ज्यों तेरे

निज आश्रय को ठेल दिया ।

इसीलिए तेरा यह हाल

फँसा आज निज कर्मजाल ।


भस्मासुर

त्याग, तपस्या, तर्पण तुझको

तन-मन-प्राण समर्पित तुझको

की मैंने थी भर आशा से

पाने माँगा मुँह वरदान ।

क्या चाहा था बोलो मैंने?

मेरी चाहत वही रही थी

जिसे चाहता हर इंसान

शक्ति संचय, निज पहचान ।

देखो क्या पर हाल बनाया !

आवश्यकता ही नहीं रही

मेरी चिता सजाने की

रहा धूल-ढेर अनजान ।

पड़े रहे सब परिजन मेरे

रहा पड़ा अस्त्रों की शान

बिन जाने वे यह भी कि

मैं कहाँ गिरा, मैं कहाँ मरा,

क्यों भला, कब, कैसे मरा ।

बोलो कैसे पूजित होगे

ठोकर देकर आश्रित को?

 

शिव

लोभ, मोह के प्रबल बेग बह

हर जन चाहे ऐसा वर

रहे बनी उसकी ही दुनिया

बाकी का हो वास रसातल ।

सुन रे अधम, असुर भस्मासुर :

हूँ विश्व-व्याप्त मैं विश्वनाथ

हूँ जीव जगत का मैं ही प्रेम

हृदय-हृदय का हूँ मैं वासी

बुद्धि, विवेक, हूँ मन भी मैं ।


कर मर्यादित अहं स्वयं का

और समेटे लोभ, मोह

बनता जग में तू महान ।

अंध मोह के वश में आ पर

करना चाहा विश्व-दमन

भस्मित कर निज अन्तर्मन ।

जिस व्यक्ति का दग्ध हुआ

बुद्धि की टोही आवाज

व्यर्थ धरा पर जीवन उनका

ऐसों पर ही गिरती गाज ।

 

भस्मासुर

हो धरे जाह्नवी जटाजूट

है कंठ तुम्हारे कालकूट

कर दे वर्षण अमृतधारा

वेग रोक हलाहल घूँट ।

शशी सुशोभित सर है तेरे

गले धरे हो विषधर व्याल

चपल चाँदनी चमका दे फिर

वापस लेकर दंश विशाल ।

ब्रह्मनाद नादित डमरू से

करते तुम सृष्टि, संहार

नाश करो ना जीवन मेरा

दे-दे वापस प्राण-वास ।

हे स्वंयभू, भोलेनाथ

कर क्षमा, दे जीवनदान ।

 

शिव

हुआ अपराध महत है तुझसे

पर पछतावा देख तुम्हारा

नहीं क्रोध अब मेरा तुझपे । 

यह जीवन ना वापस होगा

कण-कण तेरा भस्म ढेर, पर

देह धरेगा कोटि-कोटि ।

जब तक, पर, ना सीखो सीख:

नहीं जगत बस तेरे खातिर,

शशी, सूर्य ना तेरा ही

तब तक जनम-जनम बस यूँ

रहोगे जलते दग्ध-तप्त,

रहोगे बनते भस्मासुर ।

  

माता

नहीं कहानी शेष यहीं

होता अब भी रोज-रोज

इसके उसके सबके साथ ।

जहाँ प्रेम से प्रेम टूटता

समझो जन्मा एक असुर

कह लो उसको भस्मासुर ।

धर ललक-लपट, हो कामातुर

करते फिरते जग को भस्म

ना बनने तक भस्मासुर ।

सात स्वर्ग का कामी जो

मन-विवेक जब देता खो

धूल-राख का बनता ढेर,

वायु वेग या पवन मंद

रह-रह देता जिसे बिखेर।

 

***

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भस्मासुर

१.

 

बालक

धूल कहाँ से इतनी उड़तीराख हवा में उड़ती क्यों?कहो कहानी इसकी क्या माँ

वायु इतनी दूषित क्यों?

 

माँ

सुनो कहानी उन जीवन की

जिस कारण से वायु दूषित

कारण जिनके खुशियाँ कलुषित ।

खातिर औरों के जीकर ही

मानव बनता मानव श्रेष्ठ

वर्ना बनता दानव एक ।

दुख, दैन्य, विपत्ति इनसे ही

महासमर, आतंक इन्हीं से

पीड़ा, आँसू भेंट इन्हीं की ।धीरज धरकर सुनो कहानी

कैसे मानव बनता दानव

और वहाँ से भस्मासुर ।

 

२.

 

माता

अंग लपेटे हरित वसन

बूटे झिलमिल रंग-रंग

नील वर्ण तन ओढ़े चुनरीऔंधी लेटी औंघाई

जड़-जंगम की जननी । 

सुन कोलाहल धमा-धमा-धम

धावित पग की धम-धम-धम-धम

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