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"लिखना"
आज कोई कविता नहीं लिखी,
आज कोई ग़ज़ल नहीं कही,
आज कोई शेर मुकम्मल न हुआ,
तो सोचा कुछ तो लिखूँ जो "लिखा" कहलाए,
जिसे तुम पढ़ सको और कहो कि हाँ कुछ तो बात है तुम्हारे लिखे में,
मगर क्या कुछ भी लिख देना,
असल में लिखना है?
या तुम्हारा कुछ भी पढ़ लेना असल में पढ़ लेना है?
तो जवाब शायद तुम और मैं दोनों बेहतर जानते है,
कि कुछ भी लिखना "लिखना" नहीं है,
कुछ भी पढ़ना "पढ़ना" नहीं है।
तो फिर ऐसा क्या किया जाए कि
कोई ग़ज़ल,कोई शेर या कोई कविता बन जाए,
जब कोई जवाब न मिला तो ये जवाब मिला कि चार्ल्स बुकोव्स्की ने सही कहा था कि
"मत लिखो अगर फूट के न निक
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