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हम्म वक़्त के साथ सब बदल जाता हैं
सर पर नई जिम्मेदारी आ जाती हैं,
नादानियां छोड़कर समझदार होना पड़ता हैं।
वो बचपन,वो सुकूँन, वो अल्हड़पन,
न जाने कब बैचैनी और जिम्मेदारी बन जाता हैं,
पता ही नही चलता।
जिस ज़िंदगी को हम बुनने की कोशिश करते हैं,
वो न जाने कब कैसे उधड़ती चली जाती हैं।
कभी बच्चों की फ़िक्र,
कभी मुस्तक़बिल की टेंशन,
कभी रोजमर्रा की भागदौड़,
न जाने कब हर रोज़ एक दिन बीत जाता
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