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हम्म वक़्त के साथ सब बदल जाता हैं
सर पर नई जिम्मेदारी आ जाती हैं,
नादानियां छोड़कर समझदार होना पड़ता हैं।
वो बचपन,वो सुकूँन, वो अल्हड़पन,
न जाने कब बैचैनी और जिम्मेदारी बन जाता हैं,
पता ही नही चलता।
जिस ज़िंदगी को हम बुनने की कोशिश करते हैं,
वो न जाने कब कैसे उधड़ती चली जाती हैं।
कभी बच्चों की फ़िक्र,
कभी मुस्तक़बिल की टेंशन,
कभी रोजमर्रा की भागदौड़,
न जाने कब हर रोज़ एक दिन बीत जाता हैं।
और जब हम ज़िंदगी के आख़िरी पड़ाव पर होते हैं,
तो हमें वो पहले वाले सारे पड़ाव याद आते हैं,
जो ज़्यादातर एक काश पर आकर रुक जाते हैं।
काश उसदिन ज़िंदगी मे ये किया होता,
वो किया होता,
तो आज ऐसा हो जाता,
वैसा हो जाता।
बस उस वक़्त ज़िंदगी और कुछ नही,
अनकहा, अनसुलझा, अनसुना "काश"
बनकर रह जाती हैं।
कोशिश कीजिए कि ये ज़िंदगी किसी
"काश" पर आकर न रुके।
- Salma Malik
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