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पढ़ा अख़बार तो तसल्ली हुई
कहीं कुछ भी ग़लत हुआ ही नहीं
लोग झूठे हैं, कुछ भी कहते हैं
किसी का कोई भरोसा ही नहीं
सुना कुछ साये थे, मशाल लिए
जिनके हाथों से कुछ बचा ही नहीं
रात कितने मरे, तबाह हुए
इसका भी कोई आंकड़ा ही नहीं
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