मुझे घर से निकलना था's image
2 min read

मुझे घर से निकलना था

SahilVermaSahilVerma June 16, 2020
Share0 Bookmarks 184 Reads0 Likes
मुझे घर से निकलना था
मैं निकला भी
कुछ और थे जो मेरी तरह निकले
अभी तक मैं बस आदमी था
अचानक, सब बदल गया
मैं दो हुआ फिर चार
फिर हो गए सब हज़ार

सिलसिला थमा नहीं
कोई रुका नहीं
मैं भूल गया मुझे कहाँ जाना था
सब भूल गए किसे क्या लाना था

दूर आती एक अलग किस्म के लोग दिखे
इतना भी नहीं कि
देश के नागरिक न लगें
खाकी वर्दी, हांथों में डंडे, बंदूकें
साथ ही मजबूत काँधें पर
130 करोड़ जनता का बोझ

भीड़ और बड़ी हो गयी
सब का रंग हरा और भगवा होने लगा
कहीं जय श्री राम, कहीं अल्लाह ओ अकबर
कहीं भारत माता की जय, कहीं आज़ादी , आज़ादी

अचानक एक पत्थर
सायं से मेरे सर पे आकर लगी
मैंने पत्थर को देखा
सब ने पथराव को देखा

दीये शोलों में बदल गए
आग के गोलों में बदल गए
बसें जलीं, लोग जले,
और अंदर से
मेरे अंदर का हिदुस्तान भी

धायं! धायं! की आवाज़
ये क्या था, आज तो कोई त्योहार भी नहीं है
न ही कोई जश्न था
ये भागा, वो भागा, मैं भी भागा

मार दिया रे! मार दिया रे!
मेरे अंदर से आवाजें आयी
मैं गिरा एक नक्शे के ऊपर
हिन्दुतान के नक्शे के
जहाँ दफ़न थे कई मंदिर और मस्जिद
हड़प्पा की विरासत, सिंध की नदी
वो सबकुछ जो किताबों में पढ़ी थीं।

रुकिए! कुछ था जो नहीं थी इस भीड़ में
शायद डर गई होगी, या शर्म से मर गयी होगी

'इंसानियत'
जिसे सुना था कि कुछ होती ही
अफ़सोस मेरा ये सुनना मात्र
मुझे अंधे होने का एहसास करा गया।

लोग जीते, भीड़ जीती,
हिंदुस्तान हार गया, हिंदुस्तान हार गया।

No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts