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जन्नत मे बेज़ार हों बशर
फितरत-ए-इंसाँ ज़मीं पर ले आती है
अजी ज़मीं को ज़मीं क्यूँ कहिए, जहन्नुम कहिए
महोब्बत इसी जहन्नुम को कुछ बहतर बनाती
समर बटालवी
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जन्नत मे बेज़ार हों बशर
फितरत-ए-इंसाँ ज़मीं पर ले आती है
अजी ज़मीं को ज़मीं क्यूँ कहिए, जहन्नुम कहिए
महोब्बत इसी जहन्नुम को कुछ बहतर बनाती
समर बटालवी
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