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“मुर्दों की बस्ती”
अब इस बस्ती में इन्सान कहां,
उनकी पहचान कहां,
यहां तो कुछ चंद इन्सान
जिनकी पहचान है,
बाकी तो सब जिन्दा मुर्दा,
यहां रहते हैं,
जिनके होठों में आवाज नहीं,
जिनकी आंखो में बगावत
की आग नहीं,
बस जी रहे हैं जीने के लिये,
जैसे किसी ताबूत में बन्द हैं ।
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