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"सब ईश्वर की इच्छा है, इसमें हम इन्सान क्या कर सकते हैं।"
नेताजी के कानों में रह रह कर ये शब्द गूँज रहे थे। अभी चन्द घण्टों पहले एक न्यूज चैनल पर केदारनाथ व आसपास के क्षेत्रों में हुई भीषण तबाही का मंजर देखते हुए नेताजी ने यही शब्द कहे थे। जब उनकी पत्नी ने उनसे आग्रह किया था कि इतने लोग संकट में हैं और अपने क्षेत्र की सत्तारुढ़ पार्टी के एक बड़े नेता होने के नाते वे उनकी सहायता के लिए कुछ करें। तब नेताजी इसे ईश्वर की करनी बताकर टीवी पर दिखाए जा रहे उन दर्दनाक और भयावह दृश्यों का आनन्द ले रहे थे।
"देखो यहाँ घर बहे......., अरे देखो यहाँ मन्दिर गिरा........, ये सड़कें टूटी....., यात्री फंसे.....।"
भीषण तबाही की तस्वीरें भी नेताजी को एक सर्कस की तरह मनोरंजित कर रही थीं। उनकी इन बातों से आहत दयालु हृदया पत्नी मन ही मन कुढ़ते हुए अपने काम में लग गई।
यूँ तो नेताजी सदैव अपने भाषणों के द्वारा जनता के सुख दुख में उनके साथ खड़े रहने का दावा किया करते थे और अधिकांशतः शादी ब्याह, पार्टी आदि कार्यक्रमों में नजर भी आते रहते थे परन्तु सुख में शामिल होना अलग बात है और किसी के दुख में भागीदारी करना अलग। आधुनिक सुख सुविधओं से सुसज्जित अपने देहरादून स्थित निवास स्थान पर नेताजी आधा दर्जन नौकरोें और पत्नी निर्मला के साथ सुख से रहते थे। उनका बेटा राघव भोपाल के किसी काॅलेज से इन्जीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था। इकलौती सन्तान होने के कारण दोनों पति पत्नी उसे हद से ज्यादा प्यार करते थे।
नेताजी अब भी अपने वातानुकूलित घर में बैठे बैठे ही टीवी के माध्यम से आपदाग्रस्त इलाकों का दौरा कर रहे थे। उत्तराखण्ड राज्य में आई जल प्रलय का साया अब तक लगभग सभी न्यूज चैनलों पर छा चुका था। चैनल बदलते हुए अचानक एक दृश्य देखकर नेताजी की साँसे जम सी गईं।
"निर्मला... यहाँ आना...."
बहुत ही घबराई आवाज में उन्होंने अपनी पत्नी को आवाज लगाई।
"क्या हुआ जी?"
कहते हुए निर्मला ने ड्राइंग रुम में प्रवेश किया।
"अब क्या हो गया, इतने परेशान क्यों हैं आप?"
"वो..... मैंने अभी अभी राघव को वहाँ देखा है। जरा फोन लगाना उसको"
नेताजी ने जल्दी जल्दी कहा।
"कल ही तो बात हुई थी मेरी, वो तो भेपाल में है। आपने किसी और को देखा होगा।"
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