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प्रेम


प्रेम दर्शन है, पिय के समर्पण में है;
प्रेम शाश्वत है, इस जग के कण-कण में है।

प्रेम सूरज की नव-दीप्ति किरणों में भी;
भोर के शीत लहरों के जल-कण में है।

प्रेम अम्बर के तारों में चंदा में भी;
यह सुधांशु के घटते हुए क्रम में है।

प्रेम सरिता का सागर के संगम में भी;
प्रेम मेघों के बूंदों की छम-छम में है।

प्रेम नदियों की धारा के कल-कल में भी;
प्रेम सारे गगनचर के चहकन में है।

प्रेम कलियों का खिल कर महकने में भी;
प्रेम भंवरों के मधुपान, गुंजन में है।

प्रेम भोली सी आशा के किरणों में भी;
प्रेम सादा, सहज और सरल मन में है।

प्रेम नन्हे से शिशुओं के किलकन में भी;
प्रेम मां के हृदय के स्पंदन में है।

प्रेम प्रिय से मिलन के प्रतिक्षण में भी;
प्रेम प्रियवर-विरहिणी के बिछुड़न में है।

प्रेम नि:शब्द-निस्तब्ध अधरों में भी;
मौन-नैनो के भीगे से दर्पण में है।

प्रेम मन और आत्मा के बंधन में भी;
मूक के शोर में, प्रेम निर्जन में है।

संवेदिता
सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश

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