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मृदु सरिता के मानस कठोर।
मत जल में होकर के विभोर
जल ही समझो अंतर्मन को।
कर भाव-प्रवाहित स्पंदन को,
क्या पुष्प सदृश झर पाओगे?
तुम प्रेम नहीं कर पाओगे!
तुम भावुक पर गंभीर-मौन।
इस कलकल के तुम कहो कौन?
तुम दूर किसी नर का स्वर हो।
तुम पत्थर ही थे,पत्थर हो।
इस पथ पर क्योंकर आओगे?
तुम प्रेम नहीं कर पाओगे!
--©ऋतिका 'ऋतु'
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