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करते हो बसर

रोम रोम में मेरी

हरपल न कैसे सोचूं तुझे

ओढूं गर्माहट साँसों की तेरी

या बाहों में आजा समेटूं तुझे


ख्यालों की खुशबू

तेरे लफ़्ज़ों का ज़ायका

करता है हरपल बेसुध मुझे

देखूं न जिस दिन चेहरा तुम्हरा

आता नहीं है चैन मुझे


देखे जो कोई नज़रों से मेरी

तो समझे भला क्या शय है तू

प्यास बुझाती शिद्दत से मेरी

कशिश-ए-दिल की मय है तू

✍️✍️

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