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तसल्लियाँ आख़िर कहाँ
दर्द का बोझ हल्का कर पाती हैं
समय बीतने के साथ साथ
दिल पर लगी खरोंचें
और भी गहरी होती जाती हैं
दिलासे मुश्किलों को आख़िर
कहाँ आसान कर पाते हैं
बेचैनियों से भरे हुए दिल को
सुकून कहाँ दे पाते हैं
जहाँ लगाना हो दिल
वहाँ दिमाग़ लगाते हैं
भाव अपनेपन के आख़िर
लोग कहाँ समझ पाते हैं
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