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संभलती हूं कहीं से
तो कहीं से हर रोज़ बिखर जाती हूं
करती हूं जो वादा हर रोज़ ख़ुद से
ना जाने ख़ुद ही क्यों मुकर जाती हूं
जुड़ती हूं कहीं से
तो कहीं से हर रोज़ टूट जाती हूं
औरों को मनाते मनाते
ख़ुद से ही रूठ जाती हूं
सँवरती हूं कहीं से
तो कहीं से बिगड़ जाती हूं
जब समझ नहीं पाती
ज़िंदगी के दांव पेंच तो
ख़ुद से ही भिड़ जाती हूं
✍️✍️
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