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जल रहा है भीतर सबकुछ
बाहर शीतल मुस्कान है
ना जाने कैसा है ये छलावा
और ना जाने कैसा ये
ज़िंदगी का संविधान है
हो चुकी हैं राख ख्वाहिशें
हकीकतें खड़ी शर्मशार हैं
खोया है करार दिल का
ना जाने कौन ज़िम्मेदार है
मुश्किलें हैं तमाम लेकिन
उम्मीदें बरकरार हैं
आज ,कल और
परसों की आस में
ज़िंदगी फंसी मझधार है
✍️✍️
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