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खाकर ठोकरें दर दर की
फिर वापस लौट आते हैं
जज़्बात भी ना जाने
कहाँ कहाँ सिर को झुकाते हैं
मिले जो ना ठिकाना तो
पल भर में बिखर जाते हैं
एहसासों के मोती
आँखों से निर्झर बह जाते हैं
बिना आत्मीयता के
ये कहाँ चैन पाते हैं
भाव तो आख़िर भाव हैं
बिना स्नेह के ये
कहाँ टिक पाते हैं
✍️✍️
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