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दूर तक ओझिल हैं मंज़िले
बस चले जा रहें हैं
हम ना जाने खुद को क्यों
क़दम दर क़दम छले जा रहे हैं
झूठे दिलासों की ओर
मन का रुख किए जा रहें हैं
उम्मीदों के ढलते सूरज के संग
थोड़ा थोड़ा हर रोज़ ढले जा रहें है
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