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दर्द में हूँ अपमानित भी हूँ
इक तरफ़ दर्द मेरे रजोधर्म का
दूसरी तरफ़ दर्द मेरे अपमान का
मैं स्त्री हूँ या हूँ इक अपमानित दर्द?
हाँ ये उन्हीं दिनों की बात हैं
मैं डूब रही थी लाल 'समंदर' में
मेरी चींख गूंज रही थी नील 'अम्बर' में
दर्द से कहराती रही रोती रही ' दोहरा दर्द'
अपमान का बोझ अपने तन, मन पर ढोती रही
"इक तरफ़ दर्द मेरे रजोधर्म का
दूसरी तरफ़ दर्द मेरे अपमान का"
जब थी ज़रूरत सहारे की
मिली रोकटोक जमाने की
बदल रहा संसार हमारा
क्यों न बदलती सोच हमारी
मैं दर्द में हूँ ' अपमानित भी
मैं अशुद्ध नहीं
मैं अपवित्र नहीं
मैं अछूत नहीं
( मैं एक स्त्री हूँ )
मुझे सहानुभूति नहीं स्वाभिमान चाहिए
मुझे अपमान नहीं अभीमान चाहिए
रजोधर्म का दर्द प्राकृतिक है 'सह लूँगी'
पर ये अपनाम अब बस मैं नहीं सहूँगी
चाहे जितना मर्जी रोक लो टोक लो
पर अब मुझपर किसी और का जोर नही
अब बस उड़ूँगी खुले नीले आसमान मे
बनकर पंछी आज़ाद, सुनो मेरी ये आवाज़
इन रिश्तों के जाले से दूर
इक बारीक सी डोर मेरे अस्तित्व की हैं स्त्रीत्व की हैं!
रोहित कुमार~
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