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 आ लौट चलें,

चकाचौंध से, दृश्य प्रकाश पर

शोर-गुल से, श्रव्य ध्वनि पर

सपनों की निद्रा से, भोर उजास पर

आखिर शाखाओं का अस्तित्व मूल से तो ही है ।


आ लौट चलें

गगन की ऊँचाई से, धरा धरातल पर

सागर की गहराई से, अवलंब भू तट पर

शून्य तम अंधियारे से, टिमटिमाते लौ के हद पर

आखिर मन के पर को भी थाह चाहिए यथार्थ का ।।


आ लौट चलें

दूसरों के कंधों से, अपने पैरों पर

रील लाइफ से, रीयल लाइफ पर

आखिर कभी न कभी

कास्टूम उतार कर, मेकअप धोना होगा


आ लौट चलें

प्रदूषण के धूंध से, विरल वायु में

कांक्रिट के पहाड़ों से, नर्म धूसर धूल पर

कटिले दंतैल बंजर से, उर्वर सौंधी माटी पर

आखिर बीज को पौधा होने के लिए मिट्टी ही चाहिए


आ लौट चलें

प्रदर्शनीय के टंगे शब्दों से, अपनी बोली पर

झूठ से सने रसगुल्ले की मीठास से, सत्य के कड़वे नीम पर

अपनी प्रकृति, अपना संस्कार, अपना व्यवहार

सनातन था, सनातन है, सनातन ही रहेगा


-रमेश चौहान

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