
"आज़ादी क्या होती है ?"
बूढ़े बाबा से बच्चे ने पूछा,"बाबा ये आज़ादी क्या होती है ?"
गला भर जाता है उनका, आँखें थोड़ा नम होती हैं |
बोले...
" बेटा जो ये बूढ़े बरगद पे, अब आज़ाद तुम्हारा झूला लटका है,
जाने कितनों का लहू बहा था, जाने कितनों का इस पर शव अटका है |
तुम आज स्वतंत्र हवा में जी सकते हो, अपने ही कूएँ का पानी पीे सकते हो,
अपनी माटी का उपजा अन्न खा सकते हो, अपने बुने कपड़ों से तन सजा सकते हो |
इससे पहले ऐसा ना होता था, कुछ मानव सिर्फ कहने को मानव होता था,
उनका जीने का अधिकार तो छोड़ो, मरने पर अंतिम संस्कार भी ना होता था |
किंतु तुम पर यह सब ना बीते, बस ये ही उनका इक सपना था ,
सो झूल गए थे वे इसी बरगद पे, हाथ तिरंगा उनके, बस इक अपना था |
बेटा ...
बड़ी कीमत देकर हमने ये पाई है, कोई मोल नहीं है इसका, कई जानों के बदले ये आई है,
बली चढ़ी है पीढ़ी दर पीढ़ी की, तब कहीं जाकर ये हमने पाई है...
अब तुम जानो, तुम देखो... कि तुम क्या समझते हो ?
हम को तो बस ये ही आज़ादी समझ में आई है |
हम को तो बस ये ही आज़ादी समझ में आई है |
रितेश श्रीवास्तव "श्री..."
ritushriva@gmail.com
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