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राह चलता हर शख़्स चाहता है मुझ को,
ख़ुद के टुकड़े कर सब में बाँट दूँ क्या?
तल्ख़ हो गया है मेरा अज़ीज़ मुझ से,
बरी होना चाहता है कफ़स-ए-इश्क़ खोल दूँ क्या?
आलम मुझे मेरी बरकत के लिए वक्त नहीं देता,
ख़ुद कि मौत का फ़रमान जारी कर दूँ क्या?
मेरी भी कुछ ख़्वाहिश है जो मुकम्मल नहीं होती,
इक रात उनका गला घोट दूँ क्या?
वक्त नहीं मेरे पास सिलसिलो में बंधा रहता हूँ,
किसी और का वक्त चुरा लूं क्या?
थक गया सब के सितम ढाते-ढाते,
तासीर-ए-ज़हर चख लूं क्या?
लेकिन ये दुनिया कहाँ जाएगी मेरे सिवा,
यूँ ही ज़िंदगी बसर कर लूं क्या?
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