
Share0 Bookmarks 53 Reads0 Likes
मुद्दतों से था डर जिस का, आख़िर वो हो गया
ठेस लगी, दरार आई, नाज़ुक दिल टूट गया
जीने की कहाँ ज़्यादा, चंद ही तो वजहें थीं
कुछ जो सहारे थे, उनमें एक सहारा छूट गया
नाराज़गी तो वैसे, थी ही मुझ से मुक़द्दर को
दोनों ने मिल साज़िश की, जीवन भी रूठ गया
गौहर-ए-ग़म
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments