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कोमल सी शबनम सुबह की
शाम की घटा घनघोर हो तुम
काली रैन का माहताबी आग़ोश
मीठे बोसे वाली भोर हो तुम
नींद से जगाने वाली
पुरवाई की शोर हो तुम
जज़्बातों को बाँधे जो
मजबूत वो डोर हो तुम
मेरे प्रेम धागे का प्रिये
पहला आख़िरी छोर हो तुम
आधा अधूरा ही बचा हूँ !
फ़ुर्क़त में यूँ घट घट के
शेष अपना भी मिला दो
उल्फ़त का जोड़ हो तुम
- अभिषेक
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