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तरक़्क़ी का है यही पैमाना
अपनों से ही दूर हो जाना
अतिथि बनके घर को आना
दो चार दिनों में वापस जाना
ख़ुद को काफी व्यस्त बताना
माँ-बाप कहते हैं बेटों से ....
इतनी जल्दी जाता क्यूँ ऐसे
संग कुछ रोज़ और बिता ले
बेटे कहते हैं ....
मजबूरी है, रुक नहीं सकते
वेतन काट लेंगे ऑफिस वाले
जवाब सुन, वे समझ जाते हैं
न चाह कर भी,
"ठीक है " कह जाते हैं
फिर दिल को यकीं दिलाते हैं
कड़वे सच का ज़हर पी जाते हैं
ख़त्म हो गया रिश्तों का दौर
फिक्र नहीं जब औलादों को
परवाह करेगा क्या कोई और !
मर चुकी करुणा संवेदना
गुम हो गई सेवा भावना
मुश्किल है अब "श्रवण" को पाना
बस पैसों का है नया ज़माना
- अभिषेक
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