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दो रोज़ हुए, गुफ़्तुगू नहीं हुई तुझ से
लगता है गोया मुद्दतों से ग़म-ज़दा हूँ मैं
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रूह तो, कब की निकल चुकी है
ढो रहे हैं फ़क़त, वज़्न-ए-जिस्म को
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गर इश्क़ ख़ुदा है, बुतान-ए-इश्क़ तू है
मेरे ज़ीस्त की, मुसलसल ज़रूरत तू है
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तेरा मेरा राब्ता ज़माने की नज़रों में
मुक़द्दस तो नहीं, लेकिन
दिल पर दस्तक तूने,
ज़माने से पूछ कर तो नहीं दिया !
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इक तुम्हारी सदा ही तो,
थी जीने की वजह, हम-नफ़स
वो भी नहीं अब
है इज़्तिरार, मेरी ज़िंदगी में हर-नफ़स
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फ़ना हो रहा हूँ तेरी कमी से
ज़रा-ज़रा, रोज़-रोज़
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