
कोई पिता जब छोड़ कर चला जाता है
अश्क बहते हैं सैलाब की तरह
आँखों से हर ख़्वाब चला जाता है
वीरां हो जाता है घर-आँगन कि जैसे
सब साज-ओ-सामान चला जाता है
चूल्हा जलता है, भोजन पकता है, पर
खाने का स्वाद चला जाता है
जीवन मधुर संगीत होता है जिसके दम से
उस साज़ के चुप होने से, हर राग चला जाता है
जी तो लेते हैं उस माली की बगिया के फूल, लेकिन
उनका तबस्सुम और अरमान चला जाता है
बे-फ़िकर मौज मस्ती में झूमने वाले
बच्चों के सिर का ताज चला जाता है
रह रह कर चुभता है मन का खालीपन
कुछ करने का हौसला जज़्बात चला जाता है
छिप जाती हैं जा कर कहीं तमाम ख़ुशियाँ
लबों के मुस्कुराने का अंदाज़ चला जाता है
गोद में खेले, कंधों पे बैठे, उँगली पकड़ सीखे चलना
संग गुज़रे हुए ऐसे हर लम्हों पर ध्यान चला जाता है
अमावस हो जाती है यूँ ज़िंदगी मानो
डूबने को सदा के लिए आफ़ताब चला जाता है
बस एक जिस्म ही नहीं, जलने को चिता में
परिवार का सुख भी मसान चला जाता है
ग़म का पहाड़ टूटता है एक साथ अपनों पर
ग़ैरों का क्या है, देता है दिलासा, चला जाता है
याद कर कर के आँसूओं से नम करती है दामन
माँ के दिल का सुकून आराम चला जाता है
पापा की जगह जब कोई ले नहीं सकता, तो फिर
क्यूँ घर के मंदिर से, घर का भगवान चला जाता है
- अभिषेक
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