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नियम क़ायदों की दीवार
रस्मों रिवाजों के बंधन
तोड़ कर उन्मुक्त हो जाता है
दिल जब किसी पे आता है
शरारत की हद कहाँ तक
क्या है बेशर्मी का दायरा
पागल जान ना पाता है
दिल जब किसी पे आता है
जीता है जिसकी ख़ातिर
उसी पे चाहता है मरना
फिर और कहाँ कोई भाता है
दिल जब किसी पे आता है
इक ज़रा सी बेरुख़ी
बेवफ़ाई महबूब की
सहन नहीं कर पाता है
दिल जब किसी पे आता है
पाप क्या है, पुण्य क्या है
है क्या सही और ग़लत क्या
नादान समझ नहीं पाता है
दिल जब किसी पे आता है
हो दीदार शाम-ओ-सहर
कि बैठे हों सनम के पहलू में
पर जी कहाँ भर पाता है
दिल जब किसी पे आता है
रूठने के बहाने बेशक़ हज़ार
जानती हो महबूबा, लेकिन
मनाना आशिक़ सीख जाता है
दिल जब किसी पे आता है
शब-ए-फ़ुर्क़त में जाग जाग कर
दिलबर की यादों में खो कर
अँखियों में सैलाब आ जाता है
दिल जब किसी पे आता है
- अभिषेक
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