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परदेस की सरहद छोड़
लौटने को, घर-आँगन
मन करने लगता छटपट
गलियाँ, सड़कें भी जैसे
करतीं हों इंतज़ार, सुनने को
पहचाने कदमों की आहट
बरसों दूर रहने वाले
बेटे-बेटियों की,
राहें निहारतीं द्वार-चौखट
आस लगाए रहती हैं माएँ
हो कब,
दरवाजे़ पे खट-खट
दीपोत्सव के बाद
आता है
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