
देर रात को फ़ोन कर अब किसे सताती हो,
अब कौन तुमसे रूठता है, तुम किसे मनाती हो?
एक मैं ही तो था जो समझ जाता था,
अब मुझसे जुदा होकर तुम किसे समझाती हो?
अब कौन तुमसे रूठता है, तुम किसे मनाती हो?
दिन की शुरुवात होती थी तुम्हारी बातों से,
हमारा वास्ता भी हुआ करता था इन शामों से इन रातों से।
अब दिन की हर छोटी-बड़ी बात तुम किसे बताती हो,
अब कौन तुमसे रूठता है, तुम किसे मनाती हो?
इस अंधेरी ज़िंदगी में कोई सवेरा कर दे,
कहां लिखी जाती है वो तक़्दीर जो तुम्हें मेरा कर दे।
अपनी कातिलाना आदाओं से अब किसे लुभाती हो?
अब कौन तुमसे रूठता है, तुम किसे मनाती हो?
बन कर दर्द का पेगाम हर शाम चली आती हो,
तुम बीती बातों की याद बन बार-बार मुझे रुलाती हो।
जब-जब हाथ में जाम होता है तो सोचता हूं मैं,
अब कौन तुमसे रूठता है? तुम किसे मनाती हो?
- रेहान कटरावाले
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