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नभ के जैसा उत्कृष्ट हो मन,
हो ह्रदय अथाह समन्दर सा।
आभा मंडल हो शिखरों सा,
हो देंह समस्त भूमण्डल सा।
गायन में हो बीणा का स्वर,
हो दहाड़ सिंह के गर्जन सा।
बानी में ज्ञान की धारा हो,
हो स्वरुप पूरा सुदर्शन सा।
चलें तो जैसे गज मतवाला,
हो धरा में ध्वनि करतल सा।
वेग पवन प्रकाश अश्व सा हो,
हो ब्रह्माण्ड भी यूँ समतल सा।
दृग मृग सा हो शशि के जैसा,
हो द्विज चमकता मंजरीक सा।
अधरों में लालिमा रक्त की हो,
हो पलकें जैसे चंचरीक सा।
मन के भीतर अति सम्बल हो,
हो बक्ष्स्थल बिशाल हिमालय सा।
भुजाएं हों जैसे बट पीपल का,
हो ह्रदय बृहद देवालय सा।
- रविन्द्र राजदार
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