
वर्षा का प्रेम है प्रकृति से,
मनुष्य से नहीं,
मनुष्य को घमंड है
वह उसके लिए बरसती है,
पर वह तो बरसती है पेड़-पौधो के लिए,
वह बरसती है नदी और तालाबों के लिए,
वर्षा का प्रेम है, जंगल से,
मनुष्य से नहीं,
जंगल का प्रेम उसे खींच लाती है,
उसकी मदमस्त सुंदरता उसे बहुत भाती है
मत काटो, जंगल, पेड़, पहाड़
मत छीनो जीव-जंतु का आहार,
जब जंगल ही विलुप्त हो जायेंगे,
तब हम भी कहां जीवित रह पायेंगे,
आज प्रकृति करती है सवाल हमसे,
क्या संवेदनहीन बनते जा रहे हैं हम इंसान,
या हो गया है हमारा कोमल हृदय चट्टान,
क्यों झुठला रहे हैं हम प्रकृति कि महत्ता,
क्या जीवन हो गया है हमारे लिए सस्ता,
जब -जब हम धरती पर अतिक्रमण बढ़ायेगें,
तब-जब वर्षा के लिए तरस कर जान गवायेगें
सोचो, हम अपने बच्चों को क्या अच्छा कल दे पायेंगे,
सोचो, आने वाली पीढ़ी से, हम कैसे नजरें मिलायेगें।
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