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ये वक़्त गुज़रा और मैं भी गुज़रा
न कोई खैरख्वाह है
न कोई हमसफ़र ही गुज़रा
बस आदतन चलते रहते हैं
इन सुनसान राहों पे
न कोई पतझड़ और न कोई बसंत ही गुज़रा..
चलो शायद यही मुक़द्दर है अपनी
राहों में बस चलते ही रहे
पर कोई मंज़िल ना गुज़रा…
“Rashid Ali Ghazipuri”
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