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वर्षा ऋतु में अच्छी बारिश हो इसके लिए मध्यप्रदेश के निमाड़ अंचल में ज्येष्ठ मास की अमावस्या को डोडगली अमावस के रूप में मनाने की वर्षों पुरानी परंपरा है। इस समय खेतों में आम पककर पेड़ों से नीचे गिरने लगते हैं, जिसे निमाड़ी में 'डेडगली' कहते हैं। और इसी डेडगली का आगे चलकर नाम 'डोडगली' पड़ा।
डोडगली अमावस्या के दिन वर्षा ऋतु की अगवानी हेतु नाविकों के बच्चे अमावस्या के दिन सुबह - सुबह इकट्ठे होकर प्रत्येक ग्रामवासी के घर जाते हैं। और गांव के सभी किसान भाइयों से पारंपरिक निमाड़ी लोकगीत के माध्यम से दान मांगते हैं।
सभी बालिकाओं में से एक बालिका अपने सिर पर कवेलूं रखकर उसके ऊपर मिट्टी के बने दो 'डेडर यानी मेंढक' रखती है। इन मेंढको को देवी का स्वरूप माना जाता है। बच्चे इकट्ठे होकर सबके घर जाते हैं और यह लोकगीत गाते हैं -
"डेडर माता पानी दे, छानी दे
साल सुख गधा भुखss
थारा खेत म डोडय्यों - 2"
"यानी, मेंढक माता! अब जल्दी से बारिश लाओ। सभी जीव - जंतु गर्मी से त्रस्त हो गए हैं। उन्हें थोड़ी राहत प्रदान करो। आगे बच्चे किसानों की पत्नियों से गीत के माध्यम से दान मांगते हुए यह कहते हैं कि- अब तुम्हारे घर नई फसल आएगी, इसलिए तुम हमें अपनी पुरानी फसल में से थोड़ा बहुत अनाज प्रदान करने की कृपा करो। इस शुभ कार्य से तुम्हारे खेत वर्षभर फसलों से लहलहाते रहेंगे।"
बालिकाओं के साथ कुछ बालक भी रहते हैं, और इन बालकों में से एक बालक अपने शरीर को पलाश के पत्तों से ढंकता है। पलाश के पत्तों से ढंके बालक को मेंढक का प्रतीक माना जाता है। फिर सभी बच्चे घर - घर जाकर बड़े ही सुंदर तरीके से तुक से तुक मिलाकर यह गीत भी गाते हैं -
"आल्या म साबु थारो बेटो बाबु धत्तो दे - 2
कोठी फोड़ी दे - 2"
"यानी, ताक में साबुन, तुम्हारा बेटा बाबू। हे दानदाता! हमें अपने अनाज की कोठी में से बचा हुआ थोड़ा बहुत अनाज प्रदान करने की कृपा करो।"
इसके बाद किसान की पत्नियां बालिका के सिर पर रखी मेंढको और पलाश के पत्तों से ढके बालक के सिर पर पानी डालती है और उन्हें गेहूं, दाल एवं कुछ पैसे प्रदान करती है। आखरी में, सभी बच्चे नर्मदा किनारे जाकर प्रत्येक घर से एकत्रित किए हुए अनाज की दाल - बाटी बनाकर खाते हैं और वर्षा ऋतु के आगमन की खुशी मनाते हैं।
वर्षा ऋतु के आगमन का संदेश देती इस सुंदर परंपरा का उत्सव निमाड़ अंचल के हरेक गांव में बच्चों द्वारा प्रतिवर्ष मनाया जाता है। और जहां तक मैं जानती हूं, सदियों पुरानी इस लोक परंपरा को सहेजने का कार्य बच्चों से अच्छा भला कर भी कौन सकता है?
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